जब कभी भी मज़हबी आग भड़काई गई
इंसानियत की हर इक बात बिसराई गई
जरा देखो तो ये वादी में चनार जल रहे हैं
नयी फ़स्ल में फिर बारूद है सुलगाई गई
रतजगों की हद कभी, हद से ज्यादा बढ़ी
ख्वाब दे दे करके फिर चश्म बहलाई गई
ऐ, गम-ए-जिन्दगी मैं तुझे समझाऊं क्या
किन बहानों से तबियत राह पर लाई गई
यूँ तो लोगों ने कहा के है बुरा ये इश्क पर
मेरे दिल से तो कभी इसकी ना रानाई गई
जब तिरी यादों ने हौले से पूछा आके हाल
दर्द का दरिया थमा और मौजे तन्हाई गई
लगता है 'राज़' के ये नाम-ए-खुदा झूठा है
क्यूँ उस तलक न मुफलिसों की दुहाई गई
BAHUT BADHIYA...
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा ग़ज़ल.
जवाब देंहटाएंपर पडोसी के इरादे जब नेक नहीं हों तो रतजगों से कहाँ शांति आती है.
जवाब देंहटाएंमजहबी आग में इंसानियत तो जल ही जाती है
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति
साभार!
वाह! बहुत ख़ूबसूरत और सटीक ग़ज़ल...
जवाब देंहटाएंwah bahut khub......
जवाब देंहटाएंशानदार ...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आप सभी का .......
जवाब देंहटाएंवर्तमान सांप्रदायिक हिंसाओं की पीडा को पदों में आपने बयां किया है। प्रेम और सौहाद्रता का पुरस्कार है। सुंदर लेखन।
जवाब देंहटाएंdrvtshinde.blogspot.com
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जवाब देंहटाएंधन्यवाद
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