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शनिवार, दिसंबर 29, 2012




बुरी थी वो आदत, छोड़ दी 
लो हमने शराफत छोड़ दी 

जाना के कुछ नहीं हासिल 
फिर क्या इबादत छोड़ दी 

ये भी मजाक ही है मियाँ 
झूठ ने सियासत छोड़ दी 

मौसम-ए-खिज़ा में पत्तों ने  
शज़र से मुहब्बत छोड़ दी

इल्जाम सब उसपे ही लगे 
वो जिसने बगावत छोड़ दी  

नाम ही दिल्ली रह गया बस    
दिल की तो रवायत छोड़ दी  

शनिवार, दिसंबर 22, 2012

लम्हों लम्हों में बस ढलता रहा...




लम्हों लम्हों में बस ढलता रहा 
ये वक़्त रुका न, फिसलता रहा 

जिसने न की कभी क़दर इसकी 
वो उम्र भर बस हाथ मलता रहा   

गयी रुतें तो, वो पत्ते भी चल दिए 
सहरा में तन्हा शजर जलता रहा 

दोस्त समझ के जिसे साथ रखा 
आस्तीनों में सांप सा पलता रहा 

उसकी यादों की गर्मी में, बर्फ सा  
रोज कतरा कतरा मैं गलता रहा 

मंजिल की दीद हुई न कभी मुझे 
ता-उम्र मैं सफ़र पे ही चलता रहा 

उसके जाने का गम तो नहीं पर  
ना लौटने का वादा खलता रहा 

शनिवार, दिसंबर 01, 2012

खिड़कियाँ खोलो के अन्दर रौशनी आये




खिड़कियाँ खोलो के अन्दर रौशनी आये 
वीरान घर में फिर से कुछ जिंदगी आये 

ख्वाब आँखों के आवारा हुये जाते हैं देखो  
शब् से कहो के उनको थोड़ा डांटती आये 

खुशबू-ए-अहसास जो लफ़्ज़ों में ढले तो    
सफहों पे महकती हुई फिर शायरी आये 

मकसद वजूद का यूँ हो जाये मुक़म्मल 
काम आदमी के जब कभी आदमी आये 

यूँ तो खुदा से कोई दुश्मनी नहीं हैं मगर 
रास हमे खुदाई से ज्यादा काफिरी आये 

सहरा के सुलगते दिल ये ही सोचते होंगे 
कभी दरिया के हक में भी तश्नगी आये 

"राज़" कुछ नहीं आरज़ू इक सिवा इसके 
के उसकी बांहों में ही सांस आखिरी आये 

शुक्रवार, नवंबर 30, 2012

कलम चली है कहीं कोहराम ना कर दे




लफ़्ज़ों की दहशत अजब काम ना कर दे 
ये कलम चली है कहीं कोहराम ना कर दे

बात कडवी मगर सच ही तो रहती हमेशा 
चुप बैठा हूँ, कहीं क़त्ल-ए आम ना कर दे
 
सन्नाटे में गुजर इक हद तक ही है वाजिब 
हद जरा भी बढ़े तो जीना हराम ना कर दे

लत शराब औ' शबाब की अच्छी नहीं होती 
कहीं ये घर बार तक तेरा नीलाम ना कर दे 

जो सियासी लोग हैं उनसे जरा बच के रहिये 
इनसे दोस्ती कहीं आपको बदनाम ना कर दे 

गुरुवार, नवंबर 29, 2012

तिरी याद का दिसंबर.....




वही तन्हाई, वही ख़ामोशी, वही बियाबान मंजर 
लौट के आ गया है फिर से तिरी याद का दिसंबर 
जल उठे हैं वही पुराने कुछ अरमान दिल के अंदर 
लौट के आ गया है फिर से तिरी याद का दिसंबर

कुछ सुलगती हुयी साँसे तो कुछ तरसती निगाहें 
और पतझड़ की रुत में जैसे सब वीरान हुयी राहें 
आहों के जलते शोले और उसपे आँखों का समंदर 
लौट के आ गया है फिर से तिरी याद का दिसंबर

मौसमों की बर्फ़बारी और रातों की लंबी बेक़रारी 
एक एक लम्हा भी सदियों पे हो रहा हो जैसे भारी 
शायद ये पूछने के रहता हूँ कैसे तुझसे बिछड़कर 
लौट के आ गया है फिर से तिरी याद का दिसंबर

कानों को मेरे छूकर के जब भी ये गुजरेंगी हवाएं 
नाम तेरा मुझको ही हर दफे बस जायेंगी बताएं 
हिचकियों में ही होगी अब तो यहाँ अपनी गुजर 
लौट के आ गया है फिर से तिरी याद का दिसंबर

सोमवार, नवंबर 12, 2012

समझो मेरे हालात ये अशआर देखकर



यूँ ही ना जानो इन्हें तुम बेकार देखकर 
समझो मेरे हालात ये अशआर देखकर 

उसके चेहरे पे रुकी हैं कब से मेरी नज़रें   
जलता हूँ अपनी ताकते दीदार देखकर 

मुहब्बत के फिर पढने लगता हूँ कशीदे 
आऊं अल्हड़ सा जब मैं किरदार देखकर  

देखो तो ये बावरा सा इधर उधर फिरे है 
चाँद भी आया है उसका रुखसार देखकर 

फिर वो ही बासी-पुरानी ख़बरें मिलेंगी 
क्या करना है छोड़िये अख़बार देखकर.

अपने वोट की कीमत पहचान बसर तू 
अबके संसद में भेजना सरकार देखकर

कैसे तुम्हे ''राज़'' अपनी ग़ज़ल सुना दें 
तुम दाद भी देते हो तो फनकार देखकर 

शुक्रवार, नवंबर 09, 2012

ज़ख्मों का ये दरख़्त तब हरा होगा...



ज़ख्मों का ये दरख़्त तब हरा होगा 
इन आँखों में जब सावन भरा होगा 

झूठ है के हिमालय से वो गंगा लाये 
ये ऐसा काम हम जैसे ने करा होगा 

मेक'अप नहीं चेहरे की शिकन देखो 
कैसे दिल पे उसने पत्थर धरा होगा 

गाँव की हवाओं में फिर से मातम है 
किसी घर में कोई किसान मरा होगा 

शक की उसपे ना बुनियाद हो "राज़" 
दिल से जो होगा वो रिश्ता खरा होगा 

शुक्रवार, अक्तूबर 12, 2012

ज़माना किस क़दर बेताब है करवट बदलने को...




जब होंगे लोगों के दिल में वलवले मचलने को 
आ जायेंगे वो भी इन्कलाब के रस्ते चलने को 

ऐ सियासतदानों जरा तुम मुड़ कर के तो देखो 
ज़माना किस क़दर बेताब है करवट बदलने को 

बरसों बरस से तुमने तो यहाँ बहुत धूप है सेंकी  
बढ़ रहा है अब मगर दिल्ली का सूरज ढलने को 

लेकर आयेंगे कुछ चराग हम इस नयी सदी से  
जो तैयार होंगे तूफ़ान के साए में भी जलने को 

आ गया है कुछ नया सुरूर अबके तो हवाओं में
तभी तो हर शख्स बेताब है घर से निकलने को

किसी पत्ते ने भी उससे तो रफाकात ना निभायी
शज़र छोड़ आये वो तन्हा पतझर में उबलने को 

यादों की बर्फ पे "राज़" करी है लफ़्ज़ों की गर्मी
 दो चार ग़ज़लें तो है बस अब यूँ ही पिघलने को   

शनिवार, सितंबर 29, 2012

उसकी यादों में आये इतवार तो अच्छा हो....



दर्द का रुक जाए ये कारोबार तो अच्छा हो 
उसकी यादों में आये इतवार तो अच्छा हो

फिर वो मेरे गम, मेरी वहशत को समझेगी
उसे भी गर होये ये मुआ प्यार तो अच्छा हो 

जितने भी हैं गिले शिकवे उन्हें बचाए रखिये
मोहब्बत में रहे जो कुछ उधार तो अच्छा हो 

जिसकी आमद से रौशन ये चराग होने लगें 
घर आये वो शाम अब के बार तो अच्छा हो 

ये खिज़ा का मौसम कब तलक रहे यूँ जवाँ
इन गलियों से भी गुजरे बहार तो अच्छा हो 

उखड़ती हुयी हर सांस बस ये सोचती होगी 
के मर ही जाये अब ये बीमार तो अच्छा हो 

कासे में कुछ ना डालो मगर वो दुआयें देता है
फकीर जैसा हो अपना रोजगार तो अच्छा हो 

कुछ भले बदले ना बदले इस मुल्क में मगर 
बदल जाये दिल्ली की सरकार तो अच्छा हो

अजीब शख्स हो "राज़" जो गम में हँसते हो 
तुम जैसा हो गर कोई फनकार तो अच्छा हो 

शनिवार, सितंबर 22, 2012

चोट पानी जब करता है तो पत्थर टूट जाते हैं



हौसला जज्ब में रखिये तो सब डर टूट जाते हैं 
चोट पानी जब करता है, तो पत्थर टूट जाते हैं

ये किस्मत में खुदा ने क्या है लिख दिया अपनी 
नज़र जिनपे है जा टिकती वो मंजर टूट जाते हैं 

बात इन्सान की हो या, हो फिर इन दरख्तों की 
जिन्हें झुकना नहीं आता वो अक्सर टूट जाते हैं 

बरक़त दूर से ही ऐसों को छू कर के गुजरती है 
बिना माँ के जो होते हैं,  वो सब घर टूट जाते हैं 

मुहब्बत की बीमारी ने जिन्हें आकर के है घेरा 
ठीक बाहर से दिखते हैं पर वो अंदर टूट जाते हैं 

किसे है वक़्त के मंदिर-मस्जिद की जरा सोचे 
कमाने भर में ही सब के काँधे-सर टूट जाते हैं 

''राज'' पलकों में अपनी आप, ख्वाब ना रखिये 
सहर जब आँख मलती है ये गिरकर टूट जाते हैं 

गुरुवार, सितंबर 20, 2012

कोई अशआर नहीं हूँ.....


इश्क में मर जाऊं, इतना बीमार नहीं हूँ 
चाहता हूँ तुझे पर तेरा तलबगार नहीं हूँ 

यूँ तो मुश्किल नहीं है, समझना मुझको 
पर हर कोई पढ़ ले मुझे अख़बार नहीं हूँ 

मैं चंद लफ़्ज़ों में सिमट जाऊं मगर कैसे 
इक लंबी दास्ताँ हूँ कोई अशआर नहीं हूँ 

मेरे सच से गर आप खफा हैं तो हो जाएँ    
चापलूसी के फन का मैं, फनकार नहीं हूँ 

अपने लफ़्ज़ों में हूँ आफताब समेटे हुए 
तुम्हारे जैसा जुगनू का किरदार नहीं हूँ 

रंज है मुल्क के सियासतदानों से मगर 
असीम हो जाऊं मैं, इतना गद्दार नहीं हूँ *

जानता हूँ के, ये लहजा नहीं पसंद तुम्हे
तुम्हे समझाऊं, इतना समझदार नहीं हूँ 

मेरी इबादतों का सिला नहीं देता है खुदा 
क्यूँ मैं अपनी आरज़ू का हकदार नहीं हूँ 

***************************************
* 'असीम'....एक कार्टूनिस्ट....
 जिसने भारत के संविधान एवं संसद की गरिमा
भंग करते हुए कुछ कार्टून बनाये, जिसके फलस्वरूप 
उसको कुछ दिनों की जेल की सजा हुयी... 

गुरुवार, सितंबर 06, 2012

जलते चराग सारे बुझा आयी है शायद



जलते चराग सारे बुझा आयी है शायद 
जो शब् होकर के खफा आयी है शायद
 
लो, अब खामोश तहरीर हो गयी है वो 
हाँ, ख़त मेरे सब जला आयी है शायद 

के अब रात-रात भर यादों में जागते हैं 
काम कुछ तो मेरी दुआ आयी है शायद 

सच कह कह के सबसे उलझते रहना 
मेरे हक में ये ही सज़ा आयी है शायद 

महक उठे हैं खुशबू से हजारों आलम
उसके गेसू छू के हवा आयी है शायद 

होगी आरज़ू भी मुक्क़मल ''राज़'' की 
खुदा की अब तो रज़ा आयी है शायद 

मंगलवार, अगस्त 21, 2012

नींद रात रानी हो गयी



हिज्र की कलियाँ वो चटखी, नींद रात रानी हो गयी 
यादों का बरसा अब्र और चश्मे-रुत सुहानी हो गयी 

टूटे-बिखरे ख्वाब और किताबों में मुरझाये गुलाब 
मेरे हक में ये मुहब्बत की अच्छी निशानी हो गयी 

हमने जो उनको कही थी, वो बात तो कुछ और थी 
उन तलक पहुंची तो कुछ की कुछ कहानी हो गयी

चारा-ए-दिल उनका हकीम करते भी तो क्या भला  
मर्ज-ए-इश्क की जिन जिन पर मेहरबानी हो गयी

चूम कर बाद-ए-सबा को जब आफताब चल दिया 
शर्म से ये खाक ज़मीं की फिर पानी पानी हो गयी 

यूँ बंदिशें मगर सोलहवे में अच्छी नहीं लगती उसे 
पर माँ उसकी जानती है के लड़की सयानी हो गयी 

उसके ख्याल के बाद हमे ना ख्याल आया किसी का 
यूँ लगता है जैसे सारी दुनिया से बदगुमानी हो गयी 

मीर-ग़ालिब के मुकाबिल है इस जहाँ में ठहरा कौन 
उनकी तो ग़ज़लों-नज्मों में बसर जिंदगानी हो गयी  

नये कुछ और भी तो मसले उठाओ "राज़" ग़ज़ल में 
के वो बात "आरज़ू" की अब कितनी पुरानी हो गयी 

मंगलवार, अगस्त 07, 2012




मैं तो छुपा लेता हूँ, पर ये बता देता है
मेरा चेहरा मेरे हालात का पता देता है 

वो अहसान फिर अहसान नहीं रहता  
कोई कर के जब सब को सुना देता है  

जब कभी भी रुतबे का गुमाँ आता है 
मेरा माजी मुझे आईना दिखा देता है 

कौन भला उम्र भर साथ देता है यहाँ 
सूख जाएँ तो पेड़ भी पत्ते गिरा देता है 

इन्सां होता है बहरा जहाँ काम ना हो 
जहाँ हो काम वहाँ, कान लगा देता है 

ग़ज़ल की दास्तान होती है खूबसूरत 
ढंग से कोई जो उन्वान निभा देता है 

किस्मत में फतह है तो हो कर रहेगी 
क्या हुआ जो कोई हमे बद्दुआ देता है

यहाँ तो इक आरज़ू भी पूरी नहीं होती  
जाने लोगों को क्या-क्या खुदा देता है   

तुम भी इक अजीब ही शख्स हो "राज़" 
याद उसे रखोगे, जो तुम्हे भुला देता है 

रविवार, जुलाई 29, 2012

इस गम को मात मिल जायेगी...




फिर इस गम को मात मिल जायेगी 
के जब कज़ा से हयात मिल जायेगी 

सब भूल कर के हम भी सोयेंगे बहुत
पुर-सुकून जब वो रात मिल जाएगी  

मैं जितने जवाब खोजूंगा इसके लिए 
जिंदगी ले नए सवालात मिल जायेगी

उसके बेटे भी कमाने लगे है आज-कल 
अब मुफलिसी से नजात मिल जायेगी

उसके लहजे पे जरा गौर करना तुम 
बातों-बातों में मेरी बात मिल जायेगी 

देखना, जिस रोज उसकी '' हाँ '' होगी
मुझको सारी कायनात मिल जायेगी 

सोमवार, जुलाई 23, 2012





कटी पतंग सी अब तो मेरी ज़ात है 
बनते-बनते मेरी हर बिगड़ी बात है 

जो ताउम्र किस्मत के भरोसे पे रहा 
बिसाते-वक़्त में तय उसकी मात है 

मैं उसके लिए बस इक खिलौना था 
वो क्या जाने के वो मेरी कायनात है

खुदा ने कब फर्क रखा था इंसां में 
ये तो हम इंसानों की करामात है 

गुजरेगी कैसे अब सोचते हैं "राज़" 
जिन्दगी तनहा सफ़र की रात है

शनिवार, जुलाई 21, 2012

कभी मीठी तो, कभी है खारी जिंदगी




कभी मीठी तो, कभी है खारी जिंदगी 
सच कहूँ मगर है बहुत प्यारी जिंदगी 

कभी सिसके तो कभी पागलों से हँसे 
तेरी याद में कुछ यूँ है गुजारी जिंदगी 

जीने की हद तक तो तुम जियो यारों 
क्या हुआ जो क़ज़ा से है हारी जिंदगी 

कभी ख्वाब देखते, कभी आरज़ू लिए 
कट रही है बस अब यूँ हमारी जिंदगी 

उसके बगैर भी अपनी तो कटेगी "राज़" 
बस उसे ही रहेगा मलाल सारी जिंदगी 

रविवार, जून 24, 2012



के अक्ल लगती है ठिकाने से 
दुनिया भर के फरेब खाने से 

कुछ लोग हैं यहाँ सयाने से 
और कुछ हैं मुझ दीवाने से 

इक खटास सी आ जाती है 
यहाँ रिश्तों को आजमाने से 

ये मुहब्बत है कोई खेल नहीं 
वो ना समझेगी, समझाने से 

मुश्किलें जिंदगी की अजीब हैं 
और उलझती हैं, सुलझाने से 

मेरे ये लफ्ज़ खिल उठते हैं 
एक जरा तेरे मुस्कराने से 

सोच सोच के थक गया हूँ मैं 
चली आ, ना किसी बहाने से 

रुते-हिज्र में फर्क नहीं होता 
इन मौसमों के आने जाने से 

वो आरज़ू पूरी हो "राज़" की 
इक यही है आरज़ू जमाने से 

रविवार, जून 10, 2012



सुबह से चल निकले हैं, शाम तक पहुँच ही जायेंगे 
ये चाँद सितारे अपने मक़ाम तक पहुँच ही जायेंगे 

आप बस लफ़्ज़ों के जुगाली यूँ ही करते रहिएगा 
दो-चार अशआर तो अंजाम तक पहुँच ही जायेंगे 

अभी तो बज़्म में पहली ही मुलाक़ात हुयी है उनसे 
फिर से मिले तो दुआ-सलाम तक पहुँच ही जायेंगे 

ये इश्क के किस्से हैं, बदनाम कर देंगे हम दोनों को 
उसके नाम से चले हैं मेरे नाम तक पहुँच ही जायेंगे 




जब कभी भी हौसला तीरगी करने लगे 
लौ चरागों पे धर हम रौशनी करने लगे 

इसकी फितरत पर क्या भरोसा कीजिये 
जाने कब क्या फिर ये आदमी करने लगे 

हो गयी थी काबिज़ फलक पे शाम जब 
सब दरख्तों के परिंदे वापसी करने लगे 

बाद मुद्दत के घर को लौट आया कोई जब 
घर के दीवार-ओ-दर मौशिकी करने लगे 

ख़त मेरे यूँ ही फिर पढ़ लिया करना तुम 
जब परेशां तुम्हे तन्हाई-बेबसी करने लगे 

ज़मात-ए-इश्क में नाम अपना क्या लिखा 
हुज़ूर उस रोज़ से हम भी शायरी करने लगे 

औलिया की दरगाह पे जो क़दम अपने पड़े 
क्या गजब के काफिर भी बंदगी करने लगे 

मंगलवार, मई 08, 2012

कट रही है ये जिन्दगी जिन्दगी की तलाश में



कभी गम की तलाश में 
कभी ख़ुशी की तलाश में 
कट रही है ये जिन्दगी
जिन्दगी की तलाश में 

मैंने पूछा, के "ऐ हवा  
तू भटकती है यूँ क्यूँ .."
जवाब आया के "रहती हूँ 
मैं किसी की तलाश में " 

ना बहर सीखी कभी ना 
वज़न नापा लफ़्ज़ों का
बस सफहे ही रंगे हमने 
शायरी की तलाश में  

हमने तो इश्क में उसको 
खुदा का दर्जा है दे दिया 
आप सर मारिये पत्थर पे   
हाँ, बंदगी की तलाश में 

रविवार, अप्रैल 29, 2012

जब लफ्जों में उसका चर्चा हुआ होगा



इक और अशआर अच्छा हुआ होगा 
जब लफ्जों में उसका चर्चा हुआ होगा 

दिल के कोने से कुछ आहटें आती हैं 
कोई शायद यहाँ पे ठहरा हुआ होगा 

आजकल जी-आप से बात करता है 
मोहब्बत का नया लहजा हुआ होगा 

उसके आने की जब खबर आयी होगी 
आँखों में फिर दरिया उतरा हुआ होगा 

बरसों बाद आज फिर घर को लौटा हूँ 
सोचता हूँ के क्या-२ बदला हुआ होगा 

सफहों पे "राज़" दिल के बयां हुए होंगे 
इक-२ हर्फ़ आरज़ू का चेहरा हुआ होगा 

उनके लिए तो होठों से बस दुआ निकले



क्या हुआ जो के वो हमसे बेवफा निकले 
उनके लिए तो होठों से बस दुआ निकले 

उसका जिक्र हो तो बे-जुबाँ भी बोल पड़े 
काफिरों के लब से भी खुदा खुदा निकले 

चलो आओ हम भी नयी मोहब्बत लिखें 
नए ज़माने में नया सा फलसफा निकले 

कोई बे-वजह इसे बदनाम ना कर सके 
हो काश यूँ के मय भी कभी दवा निकले 

सहर आये मुस्कराती बागों में फलक से 
तब जाके गुंचों की शर्म-ओ-हया निकले 

गयी रुतों के फिर सारे पैरहन उतार कर 
देखो अबके शजर बहुत खुशनुमा निकले

पलकों पे फिर आंसुओं के सितारे जवाँ हों
जब याद उसकी दिल से होके सबा निकले

सदियाँ गुजर गयीं बस ये सोचते--सोचते   
के किसी रोज तो वो मेरी गली आ निकले 

के चाहो तो चीर दो तुम तहरीर "राज़" की 
लफ़्ज़ों में कुछ ना आरज़ू के सिवा निकले 

शुक्रवार, अप्रैल 13, 2012

लफ़्ज़ों में हमने दर्द को बोया हुआ है


बड़ी मुश्किलों से आज सोया हुआ है 
ये दर्द मेरा कितनी रातें रोया हुआ है 

उसकी चाहत बस चाहत ही रह गयी 
ख्वाब में पाया, सच में खोया हुआ है 

निखर के आ गया है चेहरा सहर का 
शब् ने आंसुओं से इसे धोया हुआ है 

देखो के महकती हुई ग़ज़ल आ गयी 
लफ़्ज़ों में हमने दर्द को बोया हुआ है 


मंगलवार, अप्रैल 03, 2012

पत्थर हम छू भर लें तो वो पिघलने लगते हैं



मौसमों की तरह वो भी रंग बदलने लगते हैं 
बुरे वक़्त दोस्त भी बचके निकलने लगते हैं 

जिन्हें मजहब का अलिफ़-बे भी नहीं पता  
बात मजहबी चले तो खूब उबलने लगते हैं 

आग दंगों की भला किसी को छोडती है कभी 
हिंदू हो या मुस्लिम घर सबके जलने लगते हैं  

वो लोग और होंगे जो पीकर लड़खडाते होंगे 
हम वो हैं जो पीकर के और संभलने लगते हैं 

ग़ज़ल में जिक्र जो उसका जरा सा हम कर दें 
ये चाँद सितारे फिर क्यूँ भला जलने लगते हैं 

जो सच बात तो वो कड़वी ही लगनी है तुमको 
क्या करें हम जो लफ्ज़ आग उगलने लगते हैं 

"राज़" मालूम है हमको क्या तासीर है अपनी  
पत्थर हम छू भर लें तो वो पिघलने लगते हैं 

शनिवार, मार्च 24, 2012

आफताब छूने चले हो जल जाओगे....



मोम ही तो हो तुम पिघल जाओगे 
आफताब छूने चले हो जल जाओगे 

मैं तुमको जरा सा सोच भर लूँ 
तुम मेरे लफ़्ज़ों में ढल जाओगे 

दिल के घर में इक मेहमाँ ही तो थे 
पता था आज नहीं तो कल जाओगे 

तुम पर यकीं कर तो लूँ पर कैसे 
मौसम ही हो पक्का बदल जाओगे 

मरासिम हवाओं से जोड़ लो तो जरा 
चरागों फिर तुम भी संभल जाओगे 

ये मेरे गम हैं जो जवाब देते ही नहीं  
मैं रोज़ पूछता हूँ किस पल जाओगे 

सोमवार, मार्च 19, 2012

चाँद किसी को देखने के बहाने निकलता है



रात को थोड़े ही रौशन बनाने निकलता है 
चाँद किसी को देखने के बहाने निकलता है

जब सोचता हूँ उसकी याद मिटा दूँ जेहन से 
ख़त इक पुराना फिर सिरहाने निकलता है 

कभी आँखों से बहा, कभी सफ्हे पे उतरा है 
दर्द भी बदल बदल के ठिकाने निकलता है 

कौन है यहाँ पर जो रुदाद-ए-गम सुने मेरी  
हर कोई अपनी कहानी सुनाने निकलता है 

क़ज़ा के पहलू में जब रूठ जाती है जिंदगी 
फिर कहाँ कोई उसको मनाने निकलता है 

माना के जुबाँ तल्ख़ है ज्यादा ही "राज" की 
पर हर लफ्ज़ कुछ नया बताने निकलता है 

शनिवार, मार्च 17, 2012

रूठ कर जिंदगी और क्या ले जायेगी


रूठ कर जिंदगी और क्या ले जायेगी 
बस मेरे ये जिस्म-ओ-जाँ ले जायेगी 

चरागों तुम जरा खामोश जला करना 
अदा इक-इक तुम्हारी हवा ले जायेगी 

हमारे बाद ही तो तुम हमको तरसोगे 
जब ख़ामोशी हमारी सदा ले जायेगी 

हयात के परदे गिर जायेंगे उस रोज़ 
क़ज़ा जिस दिन हमे छुपा ले जायेगी 

बुधवार, मार्च 07, 2012

हम बस जिन्दगी के गम में उलझे रहे



कभी जियादा कभी कम में उलझे रहे 
हम बस जिन्दगी के गम में उलझे रहे   

दौरे--बहाराँ में भी नसीब सुकूँ ना हुआ 
जो उनकी याद के मौसम में उलझे रहे 

बस तकरार का सिलसिला चलता रहा 
के हम उनमे और वो हम में उलझे रहे

टूट कर इक आईने सी बिखर गयी रात 
मेरे ख्वाब तो अश्क-पैहम में उलझे रहे 

जो तालीम लेकर के ग़ज़लख्वाँ बने थे 
उम्र भर बहर के पेचो ख़म में उलझे रहे 

शनिवार, मार्च 03, 2012

ग़ज़ल मे......



लिखना है अब मुझे अपना हाल ग़ज़ल में
होता है, तो होता रहे फिर बवाल ग़ज़ल में

ना तो हुस्न की बातें,  ना ज़माल ग़ज़ल में 
करना है बस खुद को ही मिसाल ग़ज़ल में

तुम्हे तो लगते हैं, महज़ अल्फाज़ चंद ये 
और हमने रखा है दिल निकाल ग़ज़ल में

ज़ज्ब कहते हैं बयां हमको ठीक से करना 
बहर कहती है मुझको भी संभाल ग़ज़ल में

गिनवा देते हैं नुक्स यहाँ उस्ताद बहुत से
पर कहते नहीं कर दिया कमाल ग़ज़ल में

मौसम के मिज़ाज़ों का होता है जिक्र भी 
औ करते हैं बहारों की देखभाल ग़ज़ल में

समझेगा कौन यहाँ जो लिखा है ये "राज़" 
के करते रहिये बस यही सवाल ग़ज़ल में

रविवार, फ़रवरी 05, 2012

जब किसी की याद ले के आती है हवा



फिर कुछ ज्यादा ही बल खाती है हवा 
जब किसी की याद ले के आती है हवा  

तूफां सी चले तो कहीं खामोश ही पले
रंग कितने खुद में ही दिखाती है हवा 

ऐसे ही नहीं वो सभी उड़ते हैं फलक पे 
परिंदों के हौसलों को भी बढाती है हवा 

जिद पे आ जाए तो सुने ना किसी की 
दस्त के दस्त खाक में मिटाती है हवा 

जब भी उदासियों के मंज़र सुलगते हैं  
देके प्यार से थपकियाँ सुलाती है हवा 

लौटती है जब कभी यूँ उसके शहर से 
फ़साने फिर सब उसके सुनाती है हवा 

लफ्ज़ मौसमों से उधार मिलते हैं जब 
खूबसूरत सी ग़ज़ल कोई गाती है हवा 

शुक्रवार, फ़रवरी 03, 2012

पलक अश्कों की राह मुहाल किये बैठी है



पलक अश्कों की राह मुहाल किये बैठी है  
और मुई नींद रातों से बवाल किये बैठी है 

हमे हार के इश्क की बाज़ी जिंदा रहना है  
के मोहब्बत हमको मिसाल किये बैठी है 

पूछ पूछ कर थक गया पर ये कहती नहीं 
सहर क्यूँ हर जर्रे को शलाल किये बैठी है

सेहरा की तपती रेत से जाकर जरा पूछो 
हिज्रे-बहारा में वो क्या हाल किये बैठी है 

वो नहीं आती तो तुम ही क्यूँ नहीं जाते 
मेरी अना मुझसे ये सवाल किये बैठी है 

कुछ और ख्वाहिश मुझे करने नहीं देती 
तेरी आरज़ू भी क्या कमाल किये बैठी है

घडी इंतज़ार की ये कटती ही नहीं तन्हा 
देखो हर इक लम्हे को साल किये बैठी है 

हवा के झोंके तो आते हैं चले जाते हैं यहाँ 
क्यों इनके लिए रुत मलाल किये बैठी है 

भटक रहे हैं सारे लफ्ज़ उसकी ही याद में 
ग़ज़ल है के उसका ही ख्याल किये बैठी है