लोकप्रिय पोस्ट

शनिवार, सितंबर 29, 2012

उसकी यादों में आये इतवार तो अच्छा हो....



दर्द का रुक जाए ये कारोबार तो अच्छा हो 
उसकी यादों में आये इतवार तो अच्छा हो

फिर वो मेरे गम, मेरी वहशत को समझेगी
उसे भी गर होये ये मुआ प्यार तो अच्छा हो 

जितने भी हैं गिले शिकवे उन्हें बचाए रखिये
मोहब्बत में रहे जो कुछ उधार तो अच्छा हो 

जिसकी आमद से रौशन ये चराग होने लगें 
घर आये वो शाम अब के बार तो अच्छा हो 

ये खिज़ा का मौसम कब तलक रहे यूँ जवाँ
इन गलियों से भी गुजरे बहार तो अच्छा हो 

उखड़ती हुयी हर सांस बस ये सोचती होगी 
के मर ही जाये अब ये बीमार तो अच्छा हो 

कासे में कुछ ना डालो मगर वो दुआयें देता है
फकीर जैसा हो अपना रोजगार तो अच्छा हो 

कुछ भले बदले ना बदले इस मुल्क में मगर 
बदल जाये दिल्ली की सरकार तो अच्छा हो

अजीब शख्स हो "राज़" जो गम में हँसते हो 
तुम जैसा हो गर कोई फनकार तो अच्छा हो 

शनिवार, सितंबर 22, 2012

चोट पानी जब करता है तो पत्थर टूट जाते हैं



हौसला जज्ब में रखिये तो सब डर टूट जाते हैं 
चोट पानी जब करता है, तो पत्थर टूट जाते हैं

ये किस्मत में खुदा ने क्या है लिख दिया अपनी 
नज़र जिनपे है जा टिकती वो मंजर टूट जाते हैं 

बात इन्सान की हो या, हो फिर इन दरख्तों की 
जिन्हें झुकना नहीं आता वो अक्सर टूट जाते हैं 

बरक़त दूर से ही ऐसों को छू कर के गुजरती है 
बिना माँ के जो होते हैं,  वो सब घर टूट जाते हैं 

मुहब्बत की बीमारी ने जिन्हें आकर के है घेरा 
ठीक बाहर से दिखते हैं पर वो अंदर टूट जाते हैं 

किसे है वक़्त के मंदिर-मस्जिद की जरा सोचे 
कमाने भर में ही सब के काँधे-सर टूट जाते हैं 

''राज'' पलकों में अपनी आप, ख्वाब ना रखिये 
सहर जब आँख मलती है ये गिरकर टूट जाते हैं 

गुरुवार, सितंबर 20, 2012

कोई अशआर नहीं हूँ.....


इश्क में मर जाऊं, इतना बीमार नहीं हूँ 
चाहता हूँ तुझे पर तेरा तलबगार नहीं हूँ 

यूँ तो मुश्किल नहीं है, समझना मुझको 
पर हर कोई पढ़ ले मुझे अख़बार नहीं हूँ 

मैं चंद लफ़्ज़ों में सिमट जाऊं मगर कैसे 
इक लंबी दास्ताँ हूँ कोई अशआर नहीं हूँ 

मेरे सच से गर आप खफा हैं तो हो जाएँ    
चापलूसी के फन का मैं, फनकार नहीं हूँ 

अपने लफ़्ज़ों में हूँ आफताब समेटे हुए 
तुम्हारे जैसा जुगनू का किरदार नहीं हूँ 

रंज है मुल्क के सियासतदानों से मगर 
असीम हो जाऊं मैं, इतना गद्दार नहीं हूँ *

जानता हूँ के, ये लहजा नहीं पसंद तुम्हे
तुम्हे समझाऊं, इतना समझदार नहीं हूँ 

मेरी इबादतों का सिला नहीं देता है खुदा 
क्यूँ मैं अपनी आरज़ू का हकदार नहीं हूँ 

***************************************
* 'असीम'....एक कार्टूनिस्ट....
 जिसने भारत के संविधान एवं संसद की गरिमा
भंग करते हुए कुछ कार्टून बनाये, जिसके फलस्वरूप 
उसको कुछ दिनों की जेल की सजा हुयी... 

गुरुवार, सितंबर 06, 2012

जलते चराग सारे बुझा आयी है शायद



जलते चराग सारे बुझा आयी है शायद 
जो शब् होकर के खफा आयी है शायद
 
लो, अब खामोश तहरीर हो गयी है वो 
हाँ, ख़त मेरे सब जला आयी है शायद 

के अब रात-रात भर यादों में जागते हैं 
काम कुछ तो मेरी दुआ आयी है शायद 

सच कह कह के सबसे उलझते रहना 
मेरे हक में ये ही सज़ा आयी है शायद 

महक उठे हैं खुशबू से हजारों आलम
उसके गेसू छू के हवा आयी है शायद 

होगी आरज़ू भी मुक्क़मल ''राज़'' की 
खुदा की अब तो रज़ा आयी है शायद