मेरी सोच है संजीदा, मेरा दिल ख्याली है
बेतरतीब सी मैंने एक दुनिया बना ली है
तुम आ जाओ और इनको छू लो होठों से
मेरी ग़ज़ल तुम्हारे बगैर खाली--खाली है
आँखों में समंदर पर तश्नगी बुझती नहीं
किसने मेरी जानिब ये बद्दुआ उछाली है
ये आईना भी कमबख्त वफ़ा नहीं करता
इसने खुद में तो उनकी सूरत बसा ली है
उनके दीदार को ये चला आता है शाम से
चाँद भी अब हो गया, मेरे जैसा बवाली है
इस बिस्तर में कमबख्त मुझे चुभा क्या
उनकी नाक का नाथ या कान की बाली है
और कल से हो रही जो बारिश थमी नहीं
बादल फूटा है या उसने जुल्फ संभाली है
नहीं देखते इस डर से सूरते-खूबसूरत को
"राज" तेरी नजर बहुत ही काली-काली है