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गुरुवार, दिसंबर 09, 2010

अंदाज-ए-बयां और भी शायराना रहता है




अंदाज-ए-बयां और भी शायराना रहता है 
जब उनकी याद और दर्द का ज़माना रहता है 

मेरी आँखें यूँ ही छलक पड़ती हैं अचानक 
जेहनो-दिल में जब कोई लम्हा पुराना रहता है 

मेरे हर्फों में नया कुछ तो होता नहीं अब 
हाल ज़ख्मों का ही बस अपने सुनाना रहता है 

जाने कैसी है खुदा की हमपे ये इनायत 
बर्क की नज़रों में मेरा ही आशियाना रहता है 

दर्द की जब भी बढ़ जाती हैं यूँ ही लज्जतें 
आलमे-वहशत में फिर हर इक दीवाना रहता है