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रविवार, सितंबर 08, 2013

गधों का हिन्दुस्तान



मूर्खों का मूर्खिस्तान 
गधों का हिन्दुस्तान
हैं हिंदू, हैं मुसलमान  
नहीं रहा कोई इंसान

पत्थर में बसे देवता 
हाथी जैसा भगवान् 
गधों का हिन्दुस्तान 

कालर है खूब सफ़ेद 
दिल से पर बेईमान 
गधों का हिन्दुस्तान 

सीखे कभी ना कुछ 
बांचे गीता कुरआन 
गधों का हिन्दुस्तान 

फौजी को ना ये पूछें 
हीरो इनका सलमान 
गधों का हिन्दुस्तान 

रोज यूँ कोसें सरकार 
पर वोट करें ये दान 
गधों का हिन्दुस्तान  

मंगलवार, जून 18, 2013

अच्छा होगा या फिर बुरा होगा



अच्छा होगा या फिर बुरा होगा
गर कुछ नहीं तो,  तजर्बा होगा

जिंदगी फ़र्ज़ है निभाते रहिये
ना सोचिये के आगे क्या होगा

लौट-२ कर माजी में ना जाइये
उसे जाना था वो जा चुका होगा

मेरे हक में बस गम ही आये हैं
शायद यही मंजूर-ए-खुदा होगा

इश्तहार जैसा है चेहरा उसका
हर मुसीबत ने पढ़ लिया होगा

यूँ ही नहीं बरसता है ये बादल
किसी की याद में रो रहा होगा

रतजगों की बात करते करते
नींद की जद में आ चुका होगा

उसे जब बाहों में भर लेंगे हम
वो लम्हा क्या खुशनुमा होगा

तुम्हारा लहजा ग़ज़ल में ''राज़''
अपनी आरज़ू कह गया होगा

रविवार, मई 12, 2013

जिससे बिछड़ना था मैं उसी के शहर में था




जुनूँ जाने कैसा वो, उस रोज मेरे सर में था 
जिससे बिछड़ना था मैं उसी के शहर में था 

बेतरतीबी में जीस्त की आराम से गुजरी  
मुश्किल हुआ था वो सफर जो बहर में था 

सहर ने उनको यूँ ही चकनाचूर कर दिया   
रात भर जो भी कुछ ख्व्बीदा नजर में था 

वक़्त की गर्दिश को तो सब आ गया नज़र 
छुपते कहाँ कि सारा जहाँ अपने घर में था 

किसी के कान तक न गईं मासूम की चीखें  
ये सारा शहर कैसी नामर्दी के असर में था  

उसके बगैर मौसम-ए-बहाराँ का क्या करें 
सुकून बहुत उसकी याद की दोपहर में था 

सिवा मुफलिसी के कुछ हासिल नहीं "राज़"
वो शख्स जो बस सादा-हर्फी के नगर में था 


सादा-हर्फी- सच बोलने वाला 

रविवार, अप्रैल 28, 2013

हम नासमझों के हवाले जायेंगे




अँधेरे जायेंगे, उजाले जायेंगे
इक रोज सब निकाले जायेंगे

सच का जनाज़ा निकलेगा औ'
झूठ के परचम संभाले जायेंगे

जब ये जिस्म बूढा हो जाएगा
तो फिर कैसे पेट पाले जायेंगे

दिन में बुराई शराब की करेंगे
रात में गटके वो प्याले जायेंगे

यहाँ भाईचारे की बात करेंगे वो
उधर हमारे सिर उछाले जायेंगे

दिल्ली में सहमी हुई आबरुयें
कौन जाने कब उठा ले जायेंगे

समझदारों के पल्ले ना पड़े हम
हम नासमझों के हवाले जायेंगे

लफ़्ज़ों की भूख जब बढ़ेगी "राज़"
तो कुछ अशआर उबाले जायेंगे

सोमवार, अप्रैल 22, 2013

इस इश्क ने देखो क्या-क्या दिया मुझे



आँखों में अश्क, दिल रुसवा दिया मुझे 
इस इश्क ने देखो क्या-क्या दिया मुझे 

अब दिन रात बस उसे ही सोचते रहिये 
उस ने बिछड़ के काम आला दिल मुझे 

मैं जितना उबरता हूँ उतना ही डूबता हूँ 
कैसा उसने यादों का दरिया दिया मुझे 

किस्मत पे हर दफा ऐतबार किया था  
हर मर्तबा उम्मीद ने धोखा दिया मुझे 

गर्दिशे--वक़्त में सब अपने बिछड़ गए 
शाखों के सूखे पत्ते सा ठुकरा दिया मुझे 

अपनी ही करे है ये, ना सुने "राज" की 
कैसा खुदाया तूने दिल बहरा दिया मुझे 

शुक्रवार, मार्च 15, 2013

ये नाम-ए-खुदा झूठा है....




जब कभी भी मज़हबी आग भड़काई गई 
इंसानियत की हर इक बात बिसराई गई 

जरा देखो तो ये वादी में चनार जल रहे हैं  
नयी फ़स्ल में फिर बारूद है सुलगाई गई 

रतजगों की हद कभी, हद से ज्यादा बढ़ी 
ख्वाब दे दे करके फिर चश्म बहलाई गई 

ऐ, गम-ए-जिन्दगी मैं तुझे समझाऊं क्या 
किन बहानों से तबियत राह पर लाई गई
 
यूँ तो लोगों ने कहा के है बुरा ये इश्क पर 
मेरे दिल से तो कभी इसकी ना रानाई गई  

जब तिरी यादों ने हौले से पूछा आके हाल 
दर्द का दरिया थमा और मौजे तन्हाई गई  

लगता है 'राज़' के ये नाम-ए-खुदा झूठा है 
क्यूँ उस तलक न मुफलिसों की दुहाई गई 

शनिवार, फ़रवरी 09, 2013

मेरी पीठ पर दोस्तों के खंजर चले




जो भी यहाँ सच की रह-गुजर चले
उसके घर पे यारों फिर पत्थर चले

मैं दुश्मनों से तो वाकिफ था मगर
मेरी पीठ पर दोस्तों के खंजर चले

लोगो ने उसको हँसता हुआ देखा है
कौन जाने क्या दिल के अंदर चले

लफ्ज़ ये गर तुम्हे चुभे तो क्या करें
हमारी शायरी में तो यही तेवर चले

तुम्हारी बातों से ही जान में जान है
याद आओ तो साँसों का लश्कर चले

मैं उसूलों पे कायम था तो पीछे रहा
आगे बे-उसूल वाले ही अक्सर चले

जोर अपने बाजुओं में रखना "राज़"
दूर तलक साथ कभी न मुकद्दर चले

बुधवार, फ़रवरी 06, 2013

तू आये या तो तेरा ख्वाब आये




जोर बाजुओं में बे-हिसाब आये 
तोड़कर पत्थर फिर आब आये 

फलक को नाप आये कदमो से 
हम जहाँ पहुंचे कामयाब आये 

एक मुद्दत से वीरान है ये आँखे   
तू आये या तो तेरा ख्वाब आये 

सूरत-ए-चाँद और भी हसीं लगे
जुल्फ बन के जब हिजाब आये 

सवाल तश्नगी का जब कभी उठे 
जवाब इतना के बस शराब आये 

वो ख्वाहिशें रोज ख़त लिखती हैं  
कभी हो के ख़ुशी का जवाब आये 

बात कहना फनकारी नहीं "राज़"
बात तब है जब इन्किलाब आये 

मंगलवार, जनवरी 29, 2013

मेरे हक में जब भी फैसला होगा




मेरे हक में जब भी फैसला होगा 
पत्थर उनके और सर मेरा होगा

लहुलुहान जिस्म है मेरे शहर का 
फिर से मजहबी खंजर चला होगा 

सावन में बेवक्त बरसता है बादल 
शायद, उसका भी दिल टूटा होगा 

छोड़कर के जिस्म रूह चल देगी 
इक रोज देखना, ये हादसा होगा 

दर्द भी सहना पर कुछ ना कहना  
इश्क के हक में यही लिखा होगा 

नफरतों का मिजाज़ तो पूछिए 
इक मासूम उसमे भी बचा होगा     

बहुत ही सुकून की नींद आती है
उसे तो ग़ुरबत का ही नशा होगा 

मेरी बातों पे यूँ तो रंज है सबको 
पर मेरे बाद इन पे मर्सिया होगा 

बुरा वक़्त सब सिखा देगा 'राज़'   
जो भी मदरसे से बच गया होगा 

मंगलवार, जनवरी 15, 2013

क्या-2, ये जिंदगानी देगी ....




नयी मुश्किलें औ' नयी परेशानी देगी 
चंद रोज में क्या-2, ये जिंदगानी देगी 

बंज़र ख्यालों की रोज खेती करता हूँ  
कभी ना कभी तो ग़ज़ल सुहानी देगी 

लुटती आबरुयें, मक्कार सियासत'दां   
बस यही सब क्या हमे राजधानी देगी 

तरसी आँखें, तन्हा दिल, खामोश लब  
बेशक मोहब्बत कुछ तो निशानी देगी 

पाँव खुद-ब-खुद खिंच जायेंगे उस ओर 
मंजिल दिखाई जो तुमको पुरानी देगी 

मुफलिसी खिलौने नहीं खरीदने देती 
मेरे बच्चे को सुकून कोई कहानी देगी 

ज़हर बुझी बात है तुम्हारी 'राज़' मगर  
जिसे लगेगी उसको सोच सयानी देगी 

मंगलवार, जनवरी 08, 2013

दिल में बाकी पिछली सर्दियाँ रह जायेंगी.....




सूनी, गुमसुम, खामोश बस्तियाँ रह जायेंगी 
खिज़ा आयी तो बस सूखी पत्तियाँ रह जायेंगी 

अबके हिज्र का दिसंबर शायद मैं भुला भी दूं 
पर दिल में बाकी पिछली सर्दियाँ रह जायेंगी 

मुझको मालूम है ये के, तुम न आओगे मगर 
याद करती तुमको मेरी हिचकियाँ रह जायेंगी 

पलट के जब कभी मैं माजी की तरफ देखूंगा
आँखों में लहू, होठों पे सिसकियाँ रह जायेंगी  

है दुआ के खुदा तुमको सुकूँ की जिंदगी बख्शे 
हमारे हक में पुरानी सब चिट्ठियाँ रह जायेंगी 

बुधवार, जनवरी 02, 2013

ता-जिन्दगी ये दिल न कोई आरज़ू करे.....




'आप' से 'तुम' और फिर तुम से 'तू' करे 
हमसे वो इस तरह से कभी गुफ्तगू करे 

इक बार आ कर बस लगे यूँ ही सीने से  
ता-जिन्दगी ये दिल न कोई आरज़ू करे 

ये वो शय है जो के मिलती है नसीबों से 
मोहब्बत की कोई कभी ना जुस्तजू करे 

सारे ऐब-ओ-हुनर आ जाएंगे फिर नज़र 
कभी आईने को जो तू खुद से रु-ब-रु करे

कुछ नहीं हासिल है रंजिश से मेरे दोस्त 
बढाये नफरतें को ये और जाया लहू करे 

बड़ा दुखे है दिल फिर इस प्यारे शहर का 
तार-तार जब कोई दिल्ली की आबरू करे  

उस को दिल से है "राज़" निकालना ऐसे   
फूलों से जुदा जैसे कोई के रंग-ओ-बू करे