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शनिवार, सितंबर 29, 2012

उसकी यादों में आये इतवार तो अच्छा हो....



दर्द का रुक जाए ये कारोबार तो अच्छा हो 
उसकी यादों में आये इतवार तो अच्छा हो

फिर वो मेरे गम, मेरी वहशत को समझेगी
उसे भी गर होये ये मुआ प्यार तो अच्छा हो 

जितने भी हैं गिले शिकवे उन्हें बचाए रखिये
मोहब्बत में रहे जो कुछ उधार तो अच्छा हो 

जिसकी आमद से रौशन ये चराग होने लगें 
घर आये वो शाम अब के बार तो अच्छा हो 

ये खिज़ा का मौसम कब तलक रहे यूँ जवाँ
इन गलियों से भी गुजरे बहार तो अच्छा हो 

उखड़ती हुयी हर सांस बस ये सोचती होगी 
के मर ही जाये अब ये बीमार तो अच्छा हो 

कासे में कुछ ना डालो मगर वो दुआयें देता है
फकीर जैसा हो अपना रोजगार तो अच्छा हो 

कुछ भले बदले ना बदले इस मुल्क में मगर 
बदल जाये दिल्ली की सरकार तो अच्छा हो

अजीब शख्स हो "राज़" जो गम में हँसते हो 
तुम जैसा हो गर कोई फनकार तो अच्छा हो