उसकी जुल्फों से ही शैतानी हुई जाती है
फलक पे जो ये घटा सुहानी हुई जाती है
के चांदनी बिखर के ज़मीं तलक आ गयी
खामोश दरिया में इक रवानी हुई जाती है
किसी चेहरे पे जाके नहीं टिकती हैं आँखें
वही इक सूरत बस पहचानी हुई जाती है
चली जाए जो बे-धड़क छत पे वो अपनी
मुए चाँद को बहुत परेशानी हुई जाती है
पकड़ लूँ हाथ जो सरे-राह कहीं मैं उसका
शर्म से बस फिर पानी-पानी हुई जाती है
मैं उसे खुदा कहूँ या करूँ इबादत उसकी
क्यूँ यार तुम्हे इतनी हैरानी हुई जाती है
"राज़" करे ना गर कहीं जिक्र-ए-''आरज़ू''
ग़ज़ल में जैसे कोई बेईमानी हुई जाती है