फिरता हूँ अब मैं दर-ब-दर तन्हा
जब से हुआ है मेरा ये घर तन्हा
वो तो अपनी यादें भी ले कर गया
कर गया मुझको इस कदर तन्हा
मौसमे-हिज्र में शाखों पे गुल नहीं
कैसे करे अब निबाह शजर तन्हा
कोई गमख्वार नहीं मिलता मुझे
हो गया जैसे अपना ये शहर तन्हा
मंजिल का पता न सफ़र का निशाँ
मिलती है हर इक रहगुजर तन्हा
वक़्त-ए-रुखसत दोनों रोये बहुत
थम गया लम्हा रुकी गज़र तन्हा
कोई आये कफस से आज़ाद करे
तकती हैं बुलबुलों की नज़र तन्हा
साकी जिस मयकदे का रूठ गया
हुई रिंदों की शाम-ओ-सहर तन्हा
'' राज '' जज्ब की बयानी करें कैसे
ये ग़ज़ल तन्हा इसकी बहर तन्हा

vaah! bahot khub
जवाब देंहटाएंवाह!!!वाह!!! क्या कहने, बेहद उम्दा
जवाब देंहटाएंबहुत ही शब्द, भावमय प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंआशीष भाई...यहाँ तक आये..हौसला दिया....शुक्रिया
जवाब देंहटाएंसंगीता जी....आपकी आमद रौनके ग़ज़ल को बढ़ा देती है.. शुक्रिया
संजय भाई...क्या कहूँ...हौसला बढ़ा देते हैं आप के शब्द...शुक्रिया
सदा जी.......आभारी हूँ जो आपने नाचीज को वक़्त दिया..शुक्रिया